अन्नदाता दुखी भव:

इस देश में किसानों का हितैषी कोई नहीं है
कर्ज माफ करेवाले भारतीय किसान की प्रजाति को नष्ट करके रेंचहाउस वाले कंपनी किसान लाना चाहते हैं. उनके बिना भारत अमेरिका बने भी तो कैसे?
जब हजारों साल से धैर्य के साथ अपनी धरती पर टिके रहनेवाले भारतीय किसानों ने आत्महत्या करना शुरू किया तो हमारे राजनेताओं ने उनकी हालत को इस तरह से देखा मानों मुर्गियों के बुखार से मरने की बीमारी आ गयी हो. बुखार आया तो मुर्गियों को तो मरना ही है. उनके लिए और कुछ नहीं किया जा सकता. यह एक ऐतिहासिक प्रक्रिया है. खेती-किसानी कालबाह्य हो गयी है. जो इससे लगा रहेगा, जायेगा. इसमें भावुक होने की जरूरत नहीं है. किसान हमारा अन्नदाता था. शायद है भी. लेकिन अब उसे जाना है. कृषि संस्कृति और सभ्यता का जमाना गया. अब उद्योग ही नहीं उत्तर आधुनिक उद्योग का जमाना आ गया है.
इतिहासचक्र के समझदार दर्शक बने हमारे नेता खेती किसानी की चिंता छोड़ने में यह भी याद नहीं रख पाये कि सत्तर फीसदी लोग अभी भी गांव में रहते हैं. देश के साठ प्रतिशत मजदूर किसानी से रोजगार पाते हैं. भारत की तो छोड़िये संसारभर का उद्योग साठ करोड़ लोगों को नहीं खपा सकता. जैसे जैसे आर्थिक तरक्की हो रही है रोजगार कम होते जा रहे हैं. ऐसे में ये साठ करोड़ लोग क्या करेंगे? हमारे आईटी गिरमिटिया को ही सभ्य देश कितना ठोक-बजाकर लेते हैं तो फिर इन कौशलविहीन किसानों को कौन विकसति देश अपने यहां आने देगा? यह हम देख रहे हैं. और आबादी के आधे लोग उजड़ गये तो क्या शासन व्यवस्था और समृद्धि रह सकेगी? महानगरों की एक ईंट साबूत नहीं बचेगी.
इतिहास चक्र के मूकदर्शक आज तक नहीं समझा सके कि मार्क्स की भविष्यवाणी से तो सबसे पहले सर्वहारा क्रांति इंग्लैण्ड में होनी थी. आज तक नहीं हुई. रूस में होकर सत्तर साल बाद फिर प्रतिक्रांति हो गयी. हम यह क्यों नहीं समझते कि जिस खेती किसानी पर सत्तर फीसदी लोग जीते हैं वह उनकी जीवनपद्धति है. उससे एक महान संस्कृति बनी और टिकी हुई है. क्या हम भी अपने लोगों को वैसे ही उजाड़ कर उनके संसाधन छीन रहे हैं जैसे यूरोप के लोगों ने रेड इंडियन के साथ अमेरिका में किया? क्या हम अपने ही देश को अमेरिका, यूरोप बनाने के चक्कर में वैसे ही बर्बाद करेंगे जैसे साम्राज्यवादी हमलावर करते आये हैं. आखिर हम डब्ल्यूटीओ के प्रावधानों से उपजे संकट से उनकी रक्षा क्यों नहीं करते, क्यों हमनें उन्हें बाजररूपी भेड़िये के सामने चारा बनाकर फेंक दिया है?
पूरी दुनिया में अर्थव्यवस्था का कोई ऐसा मॉडल नहीं है जो 60 करोड़ लोगों को उनकी मर्जी के मुताबिक रोजी-रोटी दे सके.
अगर अमेरिका अमरीकियों की जीवनशैली से समझौता नहीं करता भले ही दुनिया का पर्यावरण नष्ट हो जाए तो क्या अपने लोगों को बचाने के लिए हम आवाज भी नहीं उठा सकते? दो टूक कहने के लिए आर्थिक और सैनिक शक्ति होना जरूरी नहीं होता. हमने जब अंग्रेजों से कहा कि आप भारत छोड़िये तो हमारे पास दृढ़ निश्चय के अलावा क्या था? तब डटे रह सकते थे तो अब क्यों नहीं? अब ऐसा इसलिए नहीं हो रहा है क्योंकि हमारे प्रभुवर्ग को अमेरिकी जीवनशैली और भोग-विलास चाहिए. इसके लिए वे अपने ही गरीब लोगों को दांव पर लगा रहे हैं. अमेरिका और यूरोप अपने संपन्न किसानों को बचाने के लिए सब्सिडी देते हैं और हम अपने गरीब किसानों की सब्सिडी काट लेते हैं. जब कोई किसान आत्महत्या करता है तो इसलिए नहीं कि वह कर्ज के बोझ तले दबा है, बल्कि इसलिए कि उसको बचानेवाला कोई नहीं है. बिजनेस के नाम पर अपने ही लोग उसे लूटते हैं.
किसान की खेती अलाभदायक बना दी गयी है. खुद किसान के लिए खेती नुकसानवाला धंधा हो गयी है. ऐसा अपने आप नहीं हुआ है. सरकार ने लगातार इस तरह की नीतियां बनाई हैं कि किसान कंगाल होता जाए. अब उसके सामने दो ही रास्ते हैं. या तो वह आत्महत्या करे या खेती-बाड़ी किसी कंपनी को बेचकर शहर की किसी गंदी बस्ती का सहारा ले ले. रिक्शा चलाए या अपराध के धंधे से कमाई करे. इक्कीसवीं सदी में महाशक्ति बनते भारत में यही उसकी नियति है.

0 Comments so far »