आज बहुत दिनों के बाद कुछ पुरानी यादो को ताज़ा करने का मन हो आया। और बस अपने बक्से में रखी कुछ पुरानी कॉलेज के समय की डायरी पर निगाह पड़ी तो याद आया, अरे ! लिखता तो मै भी था पर जैसे -जैसे समय की चादर फैलती चली गई कुछ शब्द जो पन्नो पर उकेरे थे कुछ धुंधले से हो चले थे। यू तो मै लिखता आज भी हूँ लेकिन बीते हुए लम्हों को याद करने का जो अपना मजा है वो तो सिर्फ़ अनुभव ही किया जा सकता है।
अपनी उसी डायरी से एक कविता यहाँ लिख रहा हूँ जो मैंने वर्ष 2003 में लिखी थी।

जीवन
क्या संघर्ष ही जीवन है?
क्या इसी को जीवन कहते है
जो ओरो के लिए महल बनाते है
वो खुले आकाश में सोते है।
जो ओरो के लिए कुआँ खोदते है
वो ख़ुद प्यासे रह जाते है।
जो दिन भर बोझा ढ़ोते है
वो शाम को भूखे सोते है।
यह तो केवल संघर्ष है, जीवन कहाँ ?
क्यो मानवता सोती है
क्यो ह्रदय पत्थर के होते है?
स्वार्थो के ये पुतले
क्यों मानव कहलाते है।
क्या इसी को जीवन कहते है?
क्यों मानव, मानव को नोच रहा
क्यों मानव बस अपनी ही अपनी सोच रहा
क्या इसी को मानवता कहते है
क्या इसी को जीवन कहते है?
क्या इसी को जीवन कहते है?
- विक्रम शील

युवा देश के जाग उठो

सेंकडो किसान रोज करते आत्महत्या
नहीं कोई सुनवाई है
जैसी नेतागिरी है जी वैसी अफसरशाही है

सिर्फ झूठ की पैठ सदन में सच के लिए मनाही है
चारों ओर तबाही भइया चारों ओर तबाही है।

संविधान की ऐसी-तैसी करनेवाला नायक है
बलात्कार अपहरण डकैती सबमें दक्ष विधायक है
चोर वहां का राजा है सहयोगी जहां सिपाही है।

जो गेहूं चावल की खेती करता उसके पास लंगोटी है
उतना महंगा जहर नहीं है जितनी महंगी रोटी है

लाखों टन सड़ता अनाज है किसकी लापरवाही है।
चारों ओर तबाही भइया चारों ओर तबाही है।

नदियाँ बन गयी नाले, कटते है रोज पेड़ यहाँ
विकास की अंधी दोड़ में जनता बोराई है
चारों ओर तबाही भइया चारों ओर तबाही है।

खेलगांव जो बना यमुना पर एक दिन ढह जाएगा
दिल्ली को चमकाने वालो पर तब क्या कहने को रह जाएगा

जल नहीं है पीने को, अन्न नहीं है जीने को
देखो 9 प्रतिशत की विकास दर से भारत ने दोड़ लगायी है।
कैसा है ये विकास यहाँ पर भविष्य अंधकार में छाया है

कुछ नहीं है कहने को अब,
कुछ कर दिखलाना है
युवा देश के जाग उठो
अब अपना कल बचाना है।