आज बहुत दिनों के बाद कुछ पुरानी यादो को ताज़ा करने का मन हो आया। और बस अपने बक्से में रखी कुछ पुरानी कॉलेज के समय की डायरी पर निगाह पड़ी तो याद आया, अरे ! लिखता तो मै भी था पर जैसे -जैसे समय की चादर फैलती चली गई कुछ शब्द जो पन्नो पर उकेरे थे कुछ धुंधले से हो चले थे। यू तो मै लिखता आज भी हूँ लेकिन बीते हुए लम्हों को याद करने का जो अपना मजा है वो तो सिर्फ़ अनुभव ही किया जा सकता है।
अपनी उसी डायरी से एक कविता यहाँ लिख रहा हूँ जो मैंने वर्ष 2003 में लिखी थी।

जीवन
क्या संघर्ष ही जीवन है?
क्या इसी को जीवन कहते है
जो ओरो के लिए महल बनाते है
वो खुले आकाश में सोते है।
जो ओरो के लिए कुआँ खोदते है
वो ख़ुद प्यासे रह जाते है।
जो दिन भर बोझा ढ़ोते है
वो शाम को भूखे सोते है।
यह तो केवल संघर्ष है, जीवन कहाँ ?
क्यो मानवता सोती है
क्यो ह्रदय पत्थर के होते है?
स्वार्थो के ये पुतले
क्यों मानव कहलाते है।
क्या इसी को जीवन कहते है?
क्यों मानव, मानव को नोच रहा
क्यों मानव बस अपनी ही अपनी सोच रहा
क्या इसी को मानवता कहते है
क्या इसी को जीवन कहते है?
क्या इसी को जीवन कहते है?
- विक्रम शील

2 Comments so far »

  1. by sunil parbhakar , on 1:16 AM

    vikram bhai aap to yaar shipey huey kalam k bi krantikari nikley
    great yaar
    bhai jaan yae likna matt shorrieaga.
    saheed-a-azaam baghat singh bi khoob liktey thae
    unka ik article tabb publish hua tha
    " Kalam K sipahi Agar So Gae to ,Nakli siphai vatan baech dengae"
    so dost kranti zindabaad orr sachh mae tu to yaar kafi badia likhta hai
    ik weekley niklana done reha terey sath mil k
    sunil prabhakar

  2. by sunil parbhakar , on 1:36 AM

    bala ka honsla rekhta hai jo ladai mae oor cherey pae muskan liye larta hai jo samaj k liye koi tum jaisa to kehna perta hai k issi ko jeevan kehtey hai